Thursday, September 20, 2012

पवनार आश्रम में एक दिन


कल मैं पवनार आश्रम गया था. यावात्माल-नागपुर उच्च मार्ग से सटे है यह आश्रम. करीब १५ एकड़ की जमीन पर बना यह आश्रम तमाम तरह  की प्राकृतिक विविधता अपने में समेटे है. कृत्रिमता से कोसों दूर. सब कुछ असली. बनावटी दुनिया के जामने में असली की बात हो तो आकर्षण तो होगा ही. शायद इसी कारण यहाँ आने वाले लोगों में सबसे अधिक पढ़े लिखे लोग ही होते हैं. 

भूदान आन्दोलन के प्रणेता विनोबा जी द्वारा स्थापित है यह आश्रम. विनोबा जी ने  महिलाओं के लिए खास तौर से यह आश्रम बनवाया था. वैसी महिलाएं,  जो मीराबाई की तरह अपने को साध्वी जीवन में रखना चाहती हैं, उनके लिए. मैं शाम के चार बजे आश्रम पंहुचा. आश्रम की महिलाएं इसे आश्रम नहीं ब्रह्म विद्या मंदिर कहती हैं. जब पंहुचा तो पता चला कि अभी यहाँ २४ साध्वी महिलाएं  हैं. इनमे सबसे छोटी  हैं पल्लवी...उम्र करीब २५ साल. पल्लवी असाम से हैं.  ऋषि खेत में पल्लवी लौकी का पटवन कर रही थी. पल्लवी बायो केमिस्ट्री से स्नातक हैं. कॉन्वेंट स्कूल में पिछले पांच सालों से पढ़ा रही थीं. लेकिन भौतिक दुनिया में मन नहीं रमा . अभी पल्लवी को आये दो साल हुए हैं. कहती हैं कि यहाँ भगवत गीता के अनुसार की जीवनचर्या उन्हें बेहद पसंद हैं. सबसे छोटी होने के कारण सभी की लाडली भी हैं. अब थोड़ी चर्चा ऋषि खेत की. करीब २.५ एकड़ की जमीं  पर महिलाएं खुद खेती करती हैं. इनमे फल  और सब्जियां शामिल हैं. इनके साथ कोई अलग से श्रमिक नहीं होते. ना तो इन खेतों में किसी तरह का कोई रसायन का इस्तेमाल होता है. आश्रम में करीब २० गायें भी हैं. सबों की देखभाल की जिम्मेवारी आश्रम के लोगों पर ही है. करीब दो घंटे तक आश्रम में रहा. पता ही नहीं चला, कब शाम गहरा गई. 
                   जैसे ही मैं आश्रम पंहुचा तो मेरी नजर एक प्रौढ़ा पर पड़ी. विनोबा जी की समाधी वाले कमरे के बहार एक प्रौढ़ा दो बच्चों को कुछ समझा रही थी. पूरे परिसर में सन्नाटा था. मैं भी बैठ गया. प्रणाम करते ही पूछी...कहो बेटे कहाँ से आये हो? जब उन्हें पता चला की मैं पटना का हूँ, तब थोड़ी देर के लिए उनके चेहरे पर एक प्रसन्नता का भाव दिखा. पटना में कहाँ से हो. इसके बाद अपना परिचय देती हैं- मैं जय प्रकाश नारायण की दत्तक पुत्री हूँ. मेरा नाम है- मनोरमा. जब मैं १७ साल की थी तभी मैं पवनार आ गई थी. उसके बाद से मैंने फैसला कर लिया कि अब मुझे इसी दुनिया में रहना है. उसके बाद से मैं विनोबा जी की शिष्या बन गई. मनोरमा अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहती हैं - जब मैं पहली बार मैं पवनार आश्रम आई थी, और विनोबा जी पैर छूकर प्रणाम किया तब, उन्होंने कहा बेटी अब आप यहीं रह जाओ. मुझे लगा कि जैसे मेरी मन की मुराद पूरी हो गई. आखिर पिता तो पहले से ही विनोबा जी से  प्रभावित थे. इसीलिए उनका भी कोई विरोध नहीं हुआ. अभी भी  कभी कभार घर जाना होता है. ब्रह्मा विद्या मंदिर के बारे में काफी देर तक बातें होती रहीं. 

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